Sunday, 30 June 2019

हिंदी लेख ( साने गुरुजी )

माँ को भगवान मानने वाला महापुरुष-- साने गुरुजी

हमारा जीवनसागर में तैरने वाली जीवननौका जैसा है। उस पर जाने के लिए अनेक लहरों का सामना करना पड़ता है। हम मानव भी इस जीवनौका में सफर करने वाले मुसाफिर हैं। पुस्तकों के द्वारा हमें जीवन में अनेक संघर्षों का सामना करने का ज्ञान प्राप्त होता है। पुस्तके हमारा जीवन बनाती है। इसी तरह एक पुस्तक है विश्व में  प्रख्यात हुआ है। साने गुरुजी की  "श्यामची आई " यह किताब। इस किताब के द्वारा साने गुरुजी ने पूरे विश्व में लोगों को संस्कारों का ज्ञान दिया है। ऐसे महान व्यक्ति साने गुरुजी का जीवन परिचय सबको प्रेरणा देने वाला है।

24 दिसंबर को पालगड गाँव में उनका जन्म हुआ। उनके पिता का नाम सदाशिव था और माता का नाम यशोदा था। उनके जन्म के समय उनके घर की अच्छी थी। लेकिन बाद में उसमें परिवर्तन होता गया। फिर भी माता यशोदा ने साने गुरुजी को जिसे वह बचपन में शाम कहते थे, अच्छे संस्कार दिए। गरीबी में भी किस तरह स्वाभिमान से जीना चाहिए यह सिखा कर शाम को स्वावलंबी बनाया। माँ की दी हुई यह शिक्षा का साने गुरुजी ने पूरे जीवन में उसका उपयोग किया। साने गुरुजी मातृहृदयी थे। माँ की वजह से ही उनके मन में सात्विक भावनाओं का विकास हो गया था। स्वतंत्र संग्राम में जब जब भी वे  कारावास में जाते, तब तब वे अपना समय यूं ही बर्बाद नहीं करते। वे वहाँ लिखने का काम करते थे। "  श्यामची आई "  यह किताब भी उन्होंने कारावास में ही लिखी है। इस किताब में उन्होंने माँ की ममता, संस्कार, भारतीय संस्कृति का परिचय दिया है। जब भी हम यह पुस्तक पढ़ते हैं तब हमारे आंखों से आँसू अनायास ही निकल जाते हैं। यह सब साने गुरुजी की लेखनी का कमाल है। उनके लिए अपनी माता महान थी ही,  साथ ही साथ वे अपनी भारतमाता धरनीमाता को भी महान मानते थे। उसकी रक्षा करने में उन्हें धन्यता प्रतीत होती थी।  उनके मन में कभी भी किसी के बारे में भी द्वेष ,मत्सर की भावना नहीं थी। उनका मन हमेशा से प्रेम दया ,करुणा से भरा होता।  वह हमेशा से कहते ,अगर हमें हमारा  मन शुद्ध करना है तो हमारे आँसू से प्रभावी और कोई दवा नहीं है। मानवजाति पर, प्रकृति पर ,वृक्षोंपर, पंछियों पर, फल -फूलों पर, यहाँ तक कि जानवरों पर भी वे प्रेम करते थे। पूरे विश्व में कोई भी दुखी ना रहे, सबसे प्रेम पूर्ण व्यवहार करना चाहिए, ऐसा उन्हें लगता था।और वे उसीतरह जीते भी थे। उन्होंने एक गीत भी लिखा है," खरा तो एकची धर्म जगाला प्रेम अर्पावे "   इस गीत द्वारा उनके मन में पूरे मानव जाति के प्रति  सद्भावना थी यह दिखाई देता है। प्रेम जीवन का तत्वज्ञान है ऐसा वे मानते थे। प्रेम लेने के बदले देने में सही आनंद मिलता है ऐसा उनका मानना था। और उन्होंने अपने जीवन में हमेशा से सबको आनंद ही दिया है।वे कहते हैं, कि  बचपन में ही हमपर अच्छे संस्कार होते हैं तो वे हमें जीवन भर साथ देते हैं। जिस तरह हम अपने शरीर को गंदगी लगने से बचाते हैं उसी तरह मैं अपने मन को भी  गंदे विचारों से दूर रखना चाहिए ऐसा उनका मानना था। मोह अपने मन को दुखी बनाता है इसलिए कभी भी हमें किस चीज का मोह अपने मन में नहीं रखना चाहिए यह उनकी सीख थी। कोई भी अच्छा काम करने में उन्हें लज्जा का अनुभव नहीं होता था। वे कहते , बुरा काम जब हम करते हैं तब हमें लज्जा का अनुभव होना चाहिए। अच्छा काम कैसा भी हो उसे छोटा या बड़ा ना मानकर मन लगाकर करना चाहिए। उनका स्त्री पुरुष समानता का संदेश भी महत्वपूर्ण है। उनका साहित्य भी प्रचुर मात्रा में है। जिसमें हमें संस्कारों की सीख मिलती है, प्रकृति के प्रति प्यार दिखाई देता है। जब भी हम उनका साहित्य पढ़ते हैं, तो ऐसा लगता है की किताब का जो प्रसंग है आँखों के सामने ही है।  हम उसे अनुभव कर सकते हैं।ऐसा उनका साहित्य सबको मन लगाकर पढना चाहीए। संसार में व्याप्त अनेकों कुप्रथाओंके प्रति उन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। समाज को प्रभावित किया है, प्रबोधित  किया है। उनका मन बहुत संवेदनशील था। महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया।वे खद्दर के कपडे पहनते थज।स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने जब भाग लिया था तो अनेक गीतों द्वारा लोगों के मन में देश प्रेम की ज्वाला प्रज्वलित की थी। हरिजनों के प्रति भी उनके मन में दयाभावना थी। उन्होंने अपने पूरे जीवन में अपने माँ के संस्कारों का हाथ नहीं छोड़ा। संघर्षों का सामना किया,  गरीबी का सामना किया।उसीके सहारे छात्रावासमें जब वे काम करतज थे तब छात्रों को बहुत अच्छे संस्कार  दिए। वे उनकी माता के समान सेवा करते थे। उनका अध्यापन भी प्रभावी था।अपने कार्य से वे महान बने थे।उनका कार्य सबके लिए आदर्श था।और हमेशा से रहेगा भी ।पर बार-बार प्रयास करने पर भी, कहने पर भी समाज में कुछ प्रभाव नहीं होता। यह देख कर उनका कोमल,संवेदनशील मन आक्रंदित हो उठता था। उदासी मन पर छा जाती थी। और ऐसे ही एक उदास वातावरण में उन्होंने अपनी जीवन यात्रा 11 जून 1950 को समाप्त की।

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