Tuesday, 17 December 2019
चारोळी ( नटराज )
Saturday, 14 December 2019
अलक ( वृद्धाश्रम )
बायोडाटा
Monday, 9 December 2019
हायकू
Thursday, 5 December 2019
मुक्तक ( हे असंच आहे )
Saturday, 30 November 2019
कविता ( कधी सांजवेळी )
कविता (स्वप्नपरी )
Friday, 29 November 2019
चित्रकाव्य (झोप )
Sunday, 24 November 2019
चारोळी ( रेशीमगाठ )
चारोळी ( झुणका भाकरी )
Saturday, 23 November 2019
ओवी (सय माहेराची )
Wednesday, 20 November 2019
दुहेरी चारोळी ( साहित्याचे वारकरी )
आंतरराष्ट्रीय पुरुष दिन
Thursday, 14 November 2019
कविता (घर माझे )
Wednesday, 13 November 2019
सोड व्यसनाला
कविता ( गडकिल्ले )
Sunday, 10 November 2019
हिंदी लेख ( राष्ट्रीय पक्षी दिवस )
राष्ट्रीय पक्षी दिवस
12 नवंबर यह जन्मदिन पक्षी प्रेमी डॉक्टर सलीम अली इनका जन्मदिन पक्षीदिन के तौर पर मनाने की घोषणा भारत सरकार ने की। डॉ.सलीम अली का पूरा नाम डॉक्टर सलीम मोइनुद्दीन अब्दुल अली था। मुंबई के सेंट झेवियर कॉलेज में उनकी प्रारंभिक शिक्षा पूरी हुई। बचपन से ही उन्हें पक्षियों का निरीक्षण करना अच्छा लगता था। उनका ज्यादातर समय पक्षियों के निरीक्षण में ही जाता था। इसलिए पढाई में वे अपना पूरा ध्यान नहीं दे पाते थे। एक दिन अपने मामा के साथ बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी देखने गए थे। तभी वहाँ के अनेक प्रकार के पंछियों की जातियाँ देखकर उनके छोटे से मन में पक्षियोंके प्रती कौतुहल जाग उठा। जैसे जैसे वे बढते गए वैसे वैसे उनका पक्षी प्रेम बढ़ताही गया। कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी में काम करने लगे। लेकिन उनके मन में पक्षियोंके प्रति प्रेम था वह कम नहीं हुआ था। बल्कि बढ़ता ही गया। जर्मन के प्रख्यात पक्षीतज्ज्ञ डॉ.इरविन स्ट्रसमँन के पास जाकर वे 1 साल तक वहाँ रहे और उनसे उन्होंने पक्षियों के बारे में पूरी जानकारी ली,और वहाँ रहकर अपनघ पढाई पूरी की। जब वह वापस भारत आए, तबतक उनकी मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी की जो नौकरी थी वह चली गई थी। उन्होंने बहुत प्रयास किया नौकरी ढूंढने की, लेकिन उन्हें नहीं मिली। और जहाँ मिली वहाँ इनका पक्षी प्रेम बीच में आया और वह नौकरियां भी चली गई। अंत में उन्होंने मुंबई के पास पत्नी के गाँव कीहीम में आकर रहे। वहाँपर उन्हें पक्षियों के लिए ज्यादा समय देने के लिए समय मिल गया। वहाँ पर उन्होंने सुगरण नामक पक्षी के जीवन पर शोध निबंध प्रस्तुत किया। सुबह से शाम तक बिना खाए पिए वह पक्षीओके के पास ही अपना सारा वक्त बिताते थे। पक्षियों के जीवन की बारीकी से पढ़ाई की थी। उनका यह शोध निबंध पूरे विश्व में सम्मानित हुआ और डॉक्टर सलीम अली पक्षीप्रेमी कहकर पहचानने लगे। पक्षियों के बारे में पूरी जानकारी होने के कारण पक्षी जीवन का चलता फिरता ज्ञानकोष भी उन्हें कहा जाता है। अपने प्रयोग और निरीक्षण के द्वारा उन्होंने बाकी के लोगों के मन में पक्षियों के प्रति कौतुहल निर्माण किया। डॉक्टर सलीम अली को पक्षियों का गहरा अध्ययन था इसलिए उन्हें भारत में पक्षी मानव के नाम से भी जानते हैं। उनका बर्ड्स ऑफ इंडिया यह कीताब बहुत लोकप्रिय हुई है। उनका कार्य देखकर डाक विभाग ने उनके स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया है। उन्हें डॉक्टरेट की पदवी भी प्राप्त हुई है। साथ ही साथ उन्हें पद्मभूषण और पद्मविभूषण पुरस्कार देकरभी नवाजा भी गया है।ऐसे पक्षिप्रेमी, पक्षिमानव,पक्षियोंका चलता फीरता ज्ञानकोश सलीम अली का जन्मदिन पक्षी दिन कहकर मनाया जाता है।उन्हें शत शत प्रणाम।
Thursday, 7 November 2019
कविता ( एकांत )
स्पर्धेसाठी
कविता
विषय - एकांत
एकांत वाटे हवाहवासा,
नको कुणाची शिरजोरी.
फसव्या जगात आता फक्त,
शिल्लक राहिलेत माजोरी.
नको कुणाची भाषणबाजी,
नकोच बाष्कळ बडबड.
पाहून पोकळ आश्वासने,
जणू वीज कोसळे कडकड,
दूर डोंगराच्या टोकावर,
वाटे बसावे जाऊन एकांत.
नको गोष्टी संसाराच्या,
झाडाखाली बसावे निवांत
असो परीक्षा जीवनातील,
वा शाळेतील विद्यार्थ्यांची.
सामोरे जाऊ शांतचित्ताने,
रांक लागेल मग यशाची.
एकांतातील रम्य आठवणी,
मोहवून मनाला सुखावते.
आयुष्याच्या सायंकाळी ,
अलवार झुल्यावर झुलवते.
कवयित्री ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
9881862530
चारोळी ( आठवणींचा डोंगर )
स्पर्धेसाठी
चारोळी
आठवणींचा डोंगर
मनात भरुन येतो माझ्या
आठवणींचा डोंगर सतत
सुखाच्या अन् दुखा:च्या
पायघड्यांना असतो झेलत
रचना ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
कविता ( विद्यार्थी )
अ.भा.शिक्षक साहित्य कला क्रीडा मंडळ ( राज्य )
विद्यार्थी दिनानिमित्त विशेष राज्यस्तरीय काव्यलेखन स्पर्धेसाठी
विद्यार्थी
ज्ञानसागरातील हंस,
आजन्म असावा विद्यार्थी.
नेहमीच असावा जगी,
विद्येचा कायमचा लाभार्थी.
निरक्षीर बुद्धी वापरून,
चांगले वाईट ओळखावे.
जे जे वाईट,कालबाह्य,
ते ते सर्व सोडून टाकावे.
गरज एकाग्रता चित्ताची,
गुरुजनांच्या उपदेशाला.
नको नुसती उपस्थिती,
हवी चालना बुद्धीला.
आदर्श असावेत डोळ्यापुढे,
सर्व देशभक्त अन् सैनिक.
तरच घडेल उद्याच्या,
भारताचा आदर्श नागरिक.
विद्यार्जनच ध्येय असावे,
विद्यार्थी जीवन अनमोल.
नाहीतर होईल सहजच,
बहुमोल जीवन मातीमोल.
कवयित्री
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड , जिल्हा. कोल्हापूर
9881862530
Tuesday, 5 November 2019
दुहेरी चारोळी ( सुगी भिजली )
स्पर्धेसाठी
दुहेरी चारोळी
विषय - सुगी भिजली
डोळ्यात ठेवून आसवे
सुगी भिजली पाण्याखाली
उभे पीक झोपलं रानात
नाही कुणी पोशिंद्याचा वाली
गुडघाभर पाण्यात राबतात
उरलंसुरलं पदरी पाडण्यास
सुगी भिजली डोळ्यासमोर
हाती नाही काही खाण्यास
रचना ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
Monday, 4 November 2019
हिंदी लेख ( विष्णुदास भावे )
आद्य नाटककार विष्णुदास अमृतराव भावे
साहित्य क्षेत्र में अनेक विधायें है। उनमें से नाटक एक विधा ऐसी है जो लोग प्रत्यक्ष रूप में मेहसूस करते हैं। जो लोगों के दिलों में जा बसता है। नाटक लिखना इतना आसान भी नही है। नाटककार की प्रतिभा यहाँ महत्त्वपूर्ण होती है। ऐसे ही एक प्रतिभासंपन्न नाटककार हैं विष्णुदास अमृतराव भावे। वे मराठी के नाटककार हैं।उन्हें नाट्यपरंपरा का जनक, और महाराष्ट्र नाट्य कला का भरतमुनी कहकर पहचाना जाता है। उनका जन्म 9 ऑगस्ट 1819 को महाराष्ट्र के सांगली मे हुआ। उनके पिता अमृतराव सांगली संस्थान के राजा पटवर्धनके दरबार में काम करते थे। विष्णूदास बचपन से ही अत्यंत बुद्धिमान थे। वे हस्तकला मे प्रवीण थे। बहोत बारीकी से कलाकुसर का काम करके वे लकडी कि गुडियाँ बनाते थे।और उन गुडीयोंद्वारा नाटक का प्रयोग करने का उनका सपना था। भानुदास जी को कविता, कथा लिखने का शौक था।1842 को कर्नाटक से भागवत मंडली सांगली में आई थी। उन्होंने "कीर्तन खेल "द्वारा अपने नाटक का प्रयोग दरबार में किया। यह देखकर ऐसा ही नाट्यप्रयोग हम मराठी में शुरू करेंगे ऐसा विचार विष्णुदासजी के पिताजी के मन में आया।उन्होंने विष्णुदास को अपना मानस बताया। विष्णुदास भी ऐसे कीर्तन खेल करें ऐसा उनके पिताजी चाहते थे। आगे चलकर चिंतामनराव पटवर्धन के प्रोत्साहन से भावेजीने 1843 को " सीता स्वयंवर " यह मराठी का पहला नाटक रंगमचपर पेश कीया। 5 नवंबर 1883 को सांगली संस्थान के महल के दरबार हॉल में नाटक का पहला प्रयोग हुआ।सबको वह बहोत पसंद आया।आगे चलकर रामायण के विषयों पर विविध विषयोंपर विष्णुदास जी ने दस नाटक लिखे और उनके प्रयोग भी सफलतापूर्वक संपन्न किए। उनके अनेक नाटक पद्यमय और आख्यानक रचनासे संबंधित थे। उन्हें नाट्याख्याने भी कहा जाता था।उनके पचास से भी अधिक नाट्याख्याने और कवितासंग्रह प्रकाशित हुये हैं। मराठी पौराणिक नाटक लिखनेवाले लोगों को विष्णुदास के पदों का उपयोग आज भी होता है। विष्णु दासजी ने " इंद्रजीत वध" "राजा गोपीचंद " "सीता स्वयंवर "नाटकों का लेखन और दिग्दर्शन भी किया। चिंतामनराव पटवर्धन उन्हें हमेशा आर्थिक मदद करते थे।लेकीन उनके निधन के बाद विष्णुदासको आर्थिक मदद मिलना बंद हो गयी। इसलिए उन्होंने अपना नाट्यप्रयोग करना 1862 को बंद कर दिया। अपने खुद के बनाए हुए लकडी के गुड़ियों के साथ नाटक करने का उनका जो सपना था वह आगे चलकर रामदास पाध्ये और उनकी पत्नी ने पूर्ण किया। उन दोनों ने मिलकर विष्णुदास का लिखा हुआ सीता स्वयंवर नाटक का प्रयोग गुड़ियों के द्वारा लोगों के सामने पेश किया। विष्णुदास भावे जी ने अपना बाकी का समय सांगली में ही बिताया। हर साल 5 नवंबर यह दिन "मराठी रंगभूमी दिन " के तौर पर मनाया जाता है। क्योंकि इसी दिन विष्णुदास भावेजीने 1843 को सीता स्वयंवर नाटक सबसे पहले रंगभूमि पर सादर किया था। इस घटना के स्मरण रूप से राज्य में 5 नवंबर " मराठी रंगभूमी दिन " मनाया जाता है ।इसतरह मराठी नाटक का स्मरण होता है।ऐसे महान नाटककार की मृत्यु 9 अगस्त 1901 को हुई। उन्हें शत-शत प्रणाम।
लेखिका
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर.
9881862530
चित्रकाव्य ( मनीमाऊ )
स्पर्धेसाठी
चित्रकाव्य
मनीमाऊ
मनीमाऊ मनीमाऊ,जोडीने,
झोपलात तुम्ही कीती छान.
काळीपांढरी अन् लालपांढरी,
उभे मात्र दोघींचे कान.
उबदार स्पर्श देत एकमेकांना,
ताणून दिली जाम बाकावर.
ठेवून पाय मऊ अंगावर,
समाधान पसरते मनावर.
वाघाची मावशी म्हणती सारे,
रंग तुझा आहेच त्यासारखा.
नाकं दोघींची लाल अन् काळे
लालचुटुक चिंचेसारखा.
मिशा शोभल्या चेहऱ्यावर,
पसरल्या छान चेहऱ्यावर.
जाणिव होते लगेच तुम्हा,
मर्जी तुमची सगळ्यांवर.
पोटभर दुधभात खाऊन,
अशाच झोपा निवांतपणे.
नाहीतर चालू कराल परत,
पायात सर्वांच्या लुडबुडणे.
कवयित्री ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
Thursday, 31 October 2019
चारोळी ( भाव अंतरीचे )
स्पर्धेसाठी
चारोळी
भाव अंतरीचे
भाव अंतरीचे माझ्या कुणी
जाणून घेणार आहे का ?
तडफडणाऱ्या मनाला आता
शांतता देणार आहे का?
रचना
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
कविता ( एक तरी दिवा लाव ),
राज्यस्तरीय मासिक काव्यलेखन स्पर्धेसाठी
कविता
विषय- एक तरी दिवा लाव
ओघळणाऱ्या अश्रूंच्या,
थेंबाना दाखवण्या जगाला.
मानवा एक तरी दिवा लाव,
जागवून तुझ्या मनाला.
अनाथाश्रमातील दु:खी,
बालकांना हसवायला.
मानवा एक तरी दिवा लाव,
ओळखून दुखऱ्या जीवाला.
वृद्धाश्रमातील असंख्य वेदना,
कमी करुन देण्या दिलासा.
मानवा एक तरी दिवा लाव,
सोडून अमानवतेचा उसासा.
समाजातील दांभिकतेविरुद्ध,
जागवण्या जगी मानवता.
मानवा एक तरी दिवा लाव,
दाखवून विविधतेतून एकता.
शांतता, समाधान, न्यायाने,
एकदिलाने जगण्यासाठी.
मानवा एक तरी दिवा लाव,
पेलून हे धनुष्य आपल्यासाठी
कवयित्री ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
9881862530
Tuesday, 29 October 2019
कविता ( कॉपी )
स्पर्धेसाठी
कविता
विषय - कॉपी
शिक्षणक्षेत्रात बोकाळलाय,
सर्वत्र कॉपीचा बाजार.
विद्यार्थी झालेत तरबेज,
शिक्षक हवालदिल अन् बेजार
फूस देती काही पालक,
नकळत पाल्याच्या हट्टापायी.
भविष्यात अवघड जाई
नकळत बालकाचा जीव जाई
जबाबदार कोण याला,
शिक्षणपद्धती का सरकार?
बदलती जीवनपद्धती सुद्धा,
फिरवी युवकांना बेकार.
कॉपी विरुद्ध अभियान,
छेडलेच पाहिजे समाजात.
सुर मिसळायला हवा यात,
युवकांचा मोठ्या आवाजात.
कॉपी नाही समाधान समस्येचे,
अभ्यास हवा एकाग्रतेचा,
एकच नारा घुमू दे सर्वत्र,
करु उच्चाटन कॉपीचे.
कवयित्री ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
9881862530
Sunday, 27 October 2019
चारोळी ( रांगोळी )
उपक्रम
चारोळी
रांगोळी
सुंदर रांगोळी सजली दारी
रंगबिरंगी मयूरपंख साजरे
शोभल्या पणत्या ज्योतीसह
नक्षी पाहून मन झाले नाचरे
रचना ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
द्रोणकाव्य ( हे रंग जीवनाचे )
द्रोणकाव्य
हे रंग जीवनाचे
हे रंग जीवनाचे
मनाला आनंद
देऊन जाती
सुखमय
करती
मला
हो
रचना ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
चित्रचारोळी ( वाचन )
उपक्रम
चित्रचारोळी
घेऊन आधार वृक्षराजाचा
गुंग बालक पुस्तक वाचनात
पाहता हास्य चेहऱ्यावरचे
वाचन चाललयं आनंदात
रचना ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
चारोळी ( माझ्या मनातली दिवाळी )
स्पर्धेसाठी
चारोळी
माझ्या मनातली दिपावली
शेतकऱ्यांना, अनाथांना
सुख समाधान देणारी अशी
माझ्या मनातील दिपावली
सांगा बरं यांना मिळेल कशी?
रचना
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
चारोळी ( भाऊबीज )
स्पर्धेसाठी
चारोळी
भाऊबीज
भाऊबीज सण प्रेमाचा
भावा बहिणींच्या स्नेहाचा
औक्षणाने उत्कर्ष मागण्याचा
आहे रक्षणाच्या बांधीलकीचा
रचना ©®
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
चारोळी ( दिपावली )
चारोळी
दिपावली
दिपावली आली सोनपावलांनी
आनंदाचे ,सुखाचे भरते घेऊन
जमला सारा कुटुंबमेळा स्नेहाने
प्रेम,जिव्हाळ्याचे लेणे लेऊन.
रचना ©®
माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
Thursday, 17 October 2019
लेख( परतीचा प्रवास )
असा झाला मुंबई चा परतीचा प्रवास
निमित्त होतं कविसंमेलनाला जायचं. एक महिना रेल्वेचं बुकिंग केलेलं. माझ्या सहकारी शिक्षिका व मी असे दोघे जाणार होतो. त्यांचं माहेर कल्याण कल्याण लाच कवी संमेलनाचा कार्यक्रम असल्याने एका दगडात दोन पक्षी मारणे होणार होते. त्यांच्या माहेरी सर्वांना भेटू शकत होत्या व माझेही कविसंमेलन होणार होते. आरक्षण झाल्यामुळे आम्ही निश्चिंत होतो. जुलैचा महिना होता. अजून एवढा पाऊस नव्हता. हळू हळू पाऊस यायला सुरुवात झाली. हवामान खात्याने अंदाज वर्तवला की जुलैच्या शेवटच्या आठवड्यात अतिवृष्टी होणार आहे। मनात शंकेची पाल चुकचुकली. पण बघूया म्हणून आम्ही शांत राहिलो. शेवटी जायचा दिवस जवळ आला फोन करून संयोजकांना तसेच रेल्वे स्टेशन वर जाऊन चौकशी केली पण दोन्हीकडून सकारात्मक उत्तर आल्यामुळे आम्ही निवांत झालो. दुसर्या दिवशी पेपर मध्ये बातमी आली की मुंबईमध्ये अतिवृष्टीचा इशारा.... आता आली का पंचाईत ? काय करावे बरे? परत चौकशी करणे सुरू झाले. सकारात्मक उत्तरे आल्यामुळे आम्ही प्रवासाचे निश्चित केले. रेल्वे मध्ये बसण्याआधी ही चौकशी केली की रेल्वे मुंबई पर्यंत जाते का? कारण बातमी अशी होती पुढे रेल्वे बंद करण्यात आली आहे. चौकशीअंती ही रेल्वे जाईल असे सांगण्यात आले. त्यामुळे आम्ही रात्री साडे अकराच्या महालक्ष्मी एक्सप्रेस ने निघालो. प्रवास सुरू झाला. बारा वाजेपर्यंत गप्पा मारत बसलो. का कोणास ठावुक मनात शंकाकुशंका येत होत्या. मी पोतदार मॅडमना विचारले," काय हो काय व्यवस्थित पोहोचू ना ? " त्या म्हणाल्या," काय कळेना,गाडीपण वेग घेत नाही." शेवटी थोडं जागे थोडी झोप असं करत आम्ही झोपी गेलो. साडेतीनच्या सुमारास रेल्वेत हालचाल जाणू लागली. चर्चा ऐकू येऊ लागली," रेल्वे पुण्याच्या पुढे जाणार नाही" खाडकन डोळे उघडले." हे काय ऐकतोय आपण?" एक एक करत सर्वजण जागे झाले." काय झाले?, काय झाले ?" एकमेकांना विचारू लागले. परत तेच उत्तर आले. मी म्हणाले," तुम्हाला कसं काय कळाले?" ती व्यक्ती म्हणाली," मेसेज आलाय तसा मोबाईलवर." लागलीच मोबाईल काढला व पाहिलं तर काय!!!! मेसेज अडीचलाच येउन पडला होता. अतिवृष्टी व पाणी साठल्यामुळे रेल्वे पुण्याच्या पुढे जाऊ शकणार नाही. काळजात धस्स झालं!!! हे काय आणि नवीन? आम्ही दोघी प्रथमच एकट्याने रेल्वे प्रवास करत होतो. आता काय करायचे? दोघींच्या कडेही उत्तर नव्हते. हळू हळू थांबत, थांबत पहाटे सहाला एकदाची रेल्वे पुण्यात पोहोचली. व घोषणा झाली रेल्वे पुढे जाऊ शकणार नाही प्रवाशांनी उतरून घ्यावं... आता आमचा नाईलाज होता. बॅगा घेऊन खाली उतरल्या शिवाय पर्याय नव्हता. पाऊस चालूच होता. पुढे काय? परत जावं का पुढे जावं? काही कळेना. स्टेशनवरील महिला कक्षामध्ये गेलो व विचार करू लागलो. फ्रेश होऊया म्हटलं, बाथरूम मध्ये गेले ते पाणी सुद्धा नव्हते . थोडा वेळ तसाच शांत बसलो. काही वेळाने काही प्रवासी मुंबईला निघाले होते जायचे ठरवले होते. स्टेशनच्या बाहेर बस मिळेल असे सांगण्यात आले. तेवढ्यात मोबाईलवर मेसेज आला की अंबरनाथ जवळ महालक्ष्मी एक्सप्रेस पाण्यात अडकलेली आहे. चहुबाजूंनी पाणी वेढलेले फोटो ,व्हिडिओ प्रसारित होऊ लागले. उलट-सुलट बातम्यांना ऊत आला. सर्वांचे चेहरे चिंताक्रांत दिसू लागले. उल्हास नदीने रौद्ररूप धारण केले होते. वांगणीला महालक्ष्मी एक्सप्रेस बंद पडल्यामुळे पुढे जाऊ शकत नव्हती त्यामुळे सर्व वाहतूक ठप्प झाली होती. संयोजकांशी संपर्क साधून होते. त्यांनी बसने या असे सुचवले. तेवढ्यात एकजण चौकशी सेंटरमधून हातात तिकिटाचे कागद घेऊन आला. त्याला विचारल्यावर कळले की तिकिटाचे पैसे परत देत आहेत. तिथे जाऊन चौकशी केली असता कळले की ऑनलाईन तिकीट बुक करणाऱ्यांना पैसे परत मिळणार नाहीत. ऑनलाइन प्रयत्न करा. तुमच्या खात्यावर पैसे जमा होतील. ऑनलाईन बुकिंग चा तोटा लक्षात आला पण काही वेळाने यांना कळविल्यानंतर त्यांनी प्रामाणिकपणे पैसे खात्यात वर्ग केले. थोडे हायसे वाटले. तिथे कार्यालयात चौकशी केली की आता मुंबईला कसे जायचे? तर ते म्हणाले," आता लातूर एक्सप्रेस येईल ते जाईल पनवेल मार्गे" त्यांना आम्ही परत परत विचारले," जाईल ना नक्की?" ते हो म्हणताच परत तिकीट काढलं. बाहेर आलो, आता रेल्वे कुठे थांबणार हे कुठे माहीत होतं... शेजारी एका व्यक्तीला विचारल्यावर त्याने सांगितले,"आता बोर्डावर दिसेल तिकडे लक्ष ठेवा." हे सर्व आमच्यासाठी नवीन होतं. दुसरा उपाय नव्हता. हताशपणे बोर्डाकडे पहात बसलो. थोड्यावेळाने बोर्डावर लातूर एक्सप्रेस प्लॅटफॉर्म नंबर 3 वर लागेल असे जाहीर केले. परत प्रश्न," आता तिथे कसं पोहोचायचं?" प्रश्नांवर प्रश्न मनात रुंजी घालू लागले. आलिया भोगासी असावे सादर असे म्हणून बॅगा उचलल्या तर काय.... बॅगेचे एका बाजूचे बंद तुटले व बॅग लोंबकळून लागली. घाईगडबडीत जाताना आपल्या लहान मुलाला हाताला धरून आई ओढत जाते ते दृश्य डोळ्यासमोर दिसू लागले. हसावे कि रडावे कळेना... मी मॅडम ना म्हटलं,"अहो हे बघा बंद तुटले ,आता काय करायचे? " त्या म्हणाल्या," दुष्काळात धोंडा महिना, टाचणीने बसते का पहा" सुदैवाने टाचणी होती जवळ ती बंदाला धरून पर्सला लावली. तात्पुरती उपाययोजना झाली. आता महत्त्वाचं काम होतं ते प्लॅटफॉर्म शोधायचं. तिथे एक जोडी उभी होती त्यांना विचारलं," अहो हा प्लॅटफॉर्म नंबर 3 कुठाय? व तिथे कसं जायचं?" ते म्हणाले," चला आमच्या बरोबर आम्ही तिकडे चाललोय." असे म्हणून ते जिन्याच्या पायर्या चढून वर जाऊ लागले. मी बॅग काखेत घेतली दोघेही त्यांच्या पाठीमागे निघालो. ते दोघे तरुण असल्यामुळे भरभर पायर्या चढून पुढे जाऊ लागले. त्यांना आम्ही येतोय की नाही याचं काहीच सोयरसुतक नव्हतं. त्यांना पकडण्यासाठी आम्हाला बरोबर चालण्या वाचून पर्याय नव्हता, बनवूया मला धाप लागू लागली, चांगलीच दमछाक झाली. आयुष्यात असा प्रसंग कधी आमच्यावर आला नव्हता. पण म्हणतात ना.... वेळ आली की सर्व काही सुचते. सकारात्मकता जागी होती. आमची अवस्था पाहून आम्हाला हसू येत होते. हे आम्हाला कसं शक्य होत आहे हेच आम्हाला कळत नव्हतं. मनात थोडी भीती होती. तसेच हसत निघालो. जिना संपला. व पलिकडून उतरून प्लॅटफॉर्मवर गेलो. ते दोघे थोडे थांबले व हाच प्लॅटफॉर्म सांगून पुढे जाऊ लागले. रेल्वेचा डबा कुठे लागतो हे कुठे माहीत होतं? तिथे एक कॉलेजकुमार उभा होता. त्याला विचारलं," अरे लातूर एक्सप्रेस इथे थांबते का?" त्यावर तो म्हणाला," हाँ यहींपर ठहरती है ,आप वहाँ जाकर खडे रहो,वहाँपर लेडीज डीब्बा लगता है।" त्याने हिंदीत सांगितले. थोड्यावेळातच रेल्वे आली व धडधड करत पुढे गेली. अगदी शेवटचे तीनच डबे आमच्या समोर उभे होते. तो म्हणाला," ऑंटी तुम उस डीब्बेमें बैठो।" त्याला काय वाटले कोणास ठाऊक आम्हाला महिलांचा डबा दाखवून तो दुसऱ्या डब्यामध्ये चढला. आम्हीही बाकीचा काहीही विचार न करता त्या शेवटच्या डब्यांमध्ये चढलो. एखादा पराक्रम केल्यासारखे वाटले. पण क्षणभरच... कारण आत जाऊन पाहतो तो काय !!! अगदी छोटासा डबा होता तो.आधीच चार पाच महिला निवांत बसून होत्या. खिडकीकडे च्या दोन जागा मोकळ्या होत्या तिथे मी बसलो. पावसाचे पाणीआत येत असल्यामुळे बसायची जागा, व खाली सर्वत्र ओलच होती. थोडी कोरडी जागा होती त्या ठिकाणी बॅगा ठेवल्या व बाकावर बसलो. मग मोबाईल हाती घेतला व मेसेज बघितला. संयोजकांचा मेसेज होता कोणत्याही परिस्थितीमध्ये रेल्वेने येऊ नका, आहे तिथे रेल्वे सोडा व बसने या.रेल्वे तर सुरू झाली होती, मटकागुड नाईट द्विधा मनस्थिती निर्माण झाली. नुकताच आईचा फोन येऊन गेला होता. आधी तिला फोन लावला व सर्व परिस्थिती सांगितली. पुराच्या, पावसाच्या ,पाण्यात अडकलेल्या रेल्वेच्या बातम्या सर्वत्र पोचल्या होत्या. सर्वांचे फोन येऊ लागले," काय, कुठे आहात? कसे आहात? काही धोका नाही ना? सर्वांना उत्तर देत आम्हीच आता अशाश्वतेकडे निघालो होतो. एका ओळखीच्या साहित्यिकांचा फोन आला," ताई तुम्ही कुठे आहात?" मी म्हटलं रेल्वेत आहे. ते म्हणाले," अहो ताई, मी तुम्हाला बस नाही आम्हाला सांगितलं होतं, आता पहिला कोणते स्टेशन येईल तिथे उतरून घ्या". मी मॅडम ना म्हटलं," आता हो काय करायचं? कोठे उतरायचं? तुमच्या कोण ओळखीचे आहेत का बघा. त्यांना विचारूया," त्या म्हणाल्या," खंडाळ्या पर्यंत बघू,' त्यांचे एक नातेवाईक खंडाळ्याला होते त्यांना त्यांनी फोन करून चौकशी केली तर ते म्हणाले," इथे अजिबात उचलू नका कारण येथून मुंबईला किंवा परत पुण्याला जायला वाहन मिळणारच नाही. तुम्हाला रेल्वे शिवाय पर्याय नाही." आता तर काय समजेना झालं. कर्जत पर्यंत जायचं ठरलं. बाहेर धो धो पाऊस कोसळत होता. वातावरण कुंद व ढगाळलेले झाले होते.आकाश जणू धरतीवर आल्यासारखं वाटत होतं. त्यामुळे रेल्वेचा वेग अतिशय कमी होता. थोड्या थोड्या वेळाने रेल्वे थांबत होती. खंबाटकी घाटातून रेल्वे निघाली होती. सारखे बोगदे लागत होते. बोगद्यातून जाताना अंधार पडला की जीव घाबराघुबरा व्हायचा. काही वेळेला एका बाजूला खोल दरी दिसायची व धडकी भरायची. डोळे गच्च मिटून घ्यावे असे वाटायचे. एक चित्तथरारक अनुभव आम्ही अनुभवत होतो. असल्या भयानक वातावरणात पाण्याचे ओहोळ, डोंगरदरीतून वाहणारे छोटे- मोठे धबधबे डोळ्यांना सुखावत होते. पावसाचे तुषार अंगावर येत होते. असा अनुभव आम्हाला कधीच घेता आला नसता. रेल्वे अतिशय संथ गतीने पुढे पुढे सरकत होती. गाडीला अजिबात वेग नव्हता. मनात शंकेची पाल चुकचुकली. ही गाडी पण मुंबईपर्यंत जाण्याची शक्यता कमी दिसू लागली. इकडे आड आणि तिकडे विहिर अशी आमची गत झाली. आम्ही पुढे पण जाऊ शकत नव्हतो व मागे पण जाऊ शकत नव्हतो. पाउस काही थांबायचे नावच घेत नव्हता. रेल्वे जसजशी पुढे जात होती तसतसे रुळावर पाणी दिसू लागले. जाताना तर पाण्याचा एवढा मोठा लोट होता की जनु रेल्वे धबधब्या खालून चालली आहे की काय असे वाटत होते. एकदा तर असा प्रसंग आला की पुढे मार्ग नसल्यामुळे किंवा कसल्यातरी कारणाने रेल्वे हळूहळू थांबली. आमचा डबा शेवटचा असल्यामुळे डबा एका दरी वरच उभा राहिला. ते दृश्य पाहिलं आणि काळजाचा ठोका चुकला. बाप रे!!!नको नको ते विचार मनात यायला लागले. आम्ही दोघींनी एकमेकांना धीर दिला. डब्यातील इतर महिला निवांत होत्या. त्यांनाही फोन येत होते पण त्यांच्यापैकी यावर उपाय सुचवणारी एकही नव्हती. आम्हाला असं वाटायला लागलं की त्या मुलग्याचे ऐकून आम्ही या महिलांच्या डब्यात उगीचच चढलो. पुरुषांच्या डब्यात बसलो असतो तर काही माहिती तरी मिळाली असती.पण आता याचा काहीही उपयोग होणार नव्हता. शांत बसून राहण्याशिवाय आमच्याकडे पर्याय नव्हता. बराच वेळ गाडी तिथे उभी असल्यामुळे बाहेरचे दृष्य बघू लागलो. आणि अचानक मनात विचार आला आणि माझे मलाच आश्चर्य वाटले, कारण या प्रवासामध्ये प्रवास होता की या प्रवासामध्ये मी एकदाही फोटो काढले नव्हते. कारण फोटो काढायला सुचलंच नव्हतं, तशी मानसिकताही नव्हती. कोणत्याही गोष्टीला जेव्हा पर्याय राहत नाही तेव्हा मग मनुष्य कोणत्याही गोष्टीला आहे तसा स्वीकारतो. तसेच आमचेही झाले. आता आम्ही रेल्वेतुन उतरु शकत नव्हतो डबा बदलू शकत नव्हतो. मग आमचं बाहेरच्या निसर्गाकडे लक्ष गेलं. दरीकडे पाहू लागलो.घनदाट दरी हिरवीगार दिसत होती. त्यातून वाहणारे ओहोळ, कोसळणारे धबधबे आम्हाला खुणावू लागले. मला कविता सुचू लागल्या. पण जवळ कागद नसल्यामुळे मी शांत बसले. थोड्यावेळाने मी मोबाईल वर दोन-चार फोटो घेतले. तेवढ्यात रेल्वे पुन्हा सुरू झाली. व त्या दरीवरून पुढे गेले आम्ही सुटकेचा निश्वास टाकला. आता कर्जत पर्यंत जाण्याशिवाय पर्याय नव्हता. सेक्सी पण गाडी तिथे पर्यंत जाईल की नाही शंका वाटू लागली. संततधार चालूच होती. मुंबईहून येणारी महालक्ष्मी एक्सप्रेस पाण्यात अडकलेली होती व आम्हीही महालक्ष्मी एक्सप्रेस ने मुंबईला निघालो असल्यामुळे सामने ते मुळे सर्वजण घाबरले होते. सर्वांना फोन करून तशी परिस्थिती नाही आम्ही सुरक्षित आहोत हे सांगत होतो. पण बराच वेळ झाला त्यामुळे फोनही लागत नव्हते. सर्वत्र चिंतेचे वातावरण निर्माण झाले होते. आमच्या आईने तर हायच खाल्ली होती. तिचा रक्तदाब वाढला यायला लागले दवाखान्यात नेले गेले. तिथे गेल्यानंतर ई.सी.जी., कार्डिओग्राम काढायला सांगितले. वडिलांचा फोन आला मी त्यांना फोनवर सांगितले की आम्ही सुरक्षित आहोत म्हणून तिला सांगा मग पहिल्यांदा घरातील टीव्ही बंद करायला सांगितलं. कारण पुन्हा पुन्हा त्याच त्याच बातम्या ऐकून कोणीही घाबरले असते. मी आईकडे फोन द्यायला सांगितलं व तिला म्हणालो," आम्ही सुरक्षित आहोत तू काळजी करू नकोस, आम्ही आता पुढे प्रवासाला मुंबईला जात नाही आम्ही आता परतीच्या प्रवासाला लागणारा आहोत". तेव्हा तिला थोडी शांतता मिळाली. मॅडम यांच्या घरचे सुद्धा फोन करत होते. त्यांनाही त्या समजावत होत्या. पण आमची मने मात्र दोलायमान झालेली होती. आता काय करायचे? पुढे जायचे की मागे फिरायचे? पाऊस धुवाँधार चालू होता, लवकर थांबेल असे वाटत नव्हते. शेवटी एकदा कर्जत स्टेशन आले. हुश्श्य!!! पुढे जागा नसल्यामुळे हळू हळू पुढे सरकत स्टेशन जवळ थांबली. काही डबे स्टेशनच्या बाहेर होते. आमचा डबा तर सर्वात शेवटी होता. रेल्वे आता पुढे जाणार नाही असे दिसू लागले. कर्जत तर आले होते पण गाडी प्लॅटफॉर्मच्या बाहेर उभी होती. बाहेर येउन पाहीले तर उतरायला काहीच नव्हते. पलीकडच्या डब्यातून लोक उतरू लागले. त्यांच्याकडून समजलं गाडी पुढे जाऊ शकत नाही. सर्वांनी खाली उतरा. खाली उतरा म्हणणे सोपे होते पण आम्ही कसे उतरणार? बाहेर येऊन पाहिले तर तिथे स्टेशनमास्तर उभे होते. त्यांना विचारलं," अहो, काय झालं?" ते म्हणाले," पावसामुळे सर्व मार्ग बंद झाले आहेत, त्यामुळे गाडी पुढे जाऊ शकत नाही. तुम्ही आता खाली उतरा". खाली पाहिले तर पायऱ्या कुठे दिसेनात. मी त्यांना म्हणाले," आम्ही कसे उतरणार?" स्टेशन मास्तर चांगले होते ते म्हणाले,"उतरा खाली, मी मदत करतो"बॅगा घेऊन दरवाज्यात आलो.खाली उभ्या असलेल्या स्टेशन मास्तरांच्याकडे बॅगा दिल्या.त्यांनी त्या घेऊन खाली बाजूला ठेवल्या.आता आम्ही उतरणार!! रेल्वेच्या पायऱ्या एकाखाली एक असल्यामुळे त्या मला दिसेचनात.एखादा गड उतरण्यासारखे काम होते ते. रेल्वे कडे तोंड करून खांबाना धरून हळू हळू एका एका पायरी वर अंदाजाने पाय ठेवत शेवटी एकदाचे खाली उतरलो. आता पलीकडे जायचे तर एक मोठा नाला ओलांडून जायचे होते. आलिया भोगासी असावे सादर असे म्हणत बॅगा उचलल्या व स्टेशन मास्तरांच्या सहाय्याने पलीकडे गेलो. पावसात भिजतच स्टेशन मध्ये गेलो. स्टेशनवर आल्यावर कळाले आता रेल्वेचा प्रवास बंद. मागेही नाही व पुढेही नाही. बसच्या प्रवासाचा शिवाय गत्यंतर नव्हते. बस स्टॅन्ड कुठे आहे याची चौकशी केली असता पलीकडे या जिन्यावरून जावा असं सांगण्यात आलं. परत ते जीने चढणे उतरणे आलं... आता मनाचा निर्धार पक्का केला. विषाची परीक्षा जास्त बघायला नको, असे ठरवले व मुंबईला रामराम ठोकूया व आपण परतीच्या प्रवासाला लागुया असे नक्की झाले. त्याप्रमाणे चौकशी करत स्टेशनच्या बाहेर येऊन उभा राहिलो. "बस कुठे थांबते?" विचारल्यानंतर, "हे काय पलीकडेच" असे सांगण्यात आले. सर्वजणच निघाले होते त्यामुळे आम्हीही निघालो. एका हातात बॅगा दुसऱ्या हातात छत्री घेऊन निघालो. बाहेर येऊन पाहतो तर काय स्टॅन्ड काही दिसेना.. फक्त रिक्षा वडापच्या गाड्या दिसू लागल्या. त्या सर्व पनवेल ,खोपोलीला जाणाऱ्या होत्या. बरेचजण त्या गाड्यांतून निघून जाऊ लागले. आम्हाला काय कल्पनाच नव्हती त्यामुळे आम्ही बसने जायचं ठरवलं. पण बस काही दिसेना. पुन्हा प्रश्नचिन्ह उभा राहिला. एकाला विचारलं ,"बस स्टॅन्ड कुठे आहे?" तर त्याने एका दिशेला हात करून सांगितले ,' ते बघा पुढे दिसतय ना त्या झाडाजवळ तिथे जावा.' म्हटलं," जवळ आहे का ?" हो आहे असे म्हणून तो निघून गेला. त्याने दाखवलेल्या वाटेने निघालो. पाऊस प्रचंड होता. आमची अवस्था तर बघण्यासारखी झाली होती. बॅगा व छत्री सांभाळत रस्त्यावरच्या पावसाने साचलेल्या घोट्याएवढ्या पाण्यातून निघालो. जवळ पंधरा ते वीस मिनिटात चाललो तरी स्टॅन्ड दिसेना. तसेच चालत राहिलो.निम्मे कपडे पाण्याने भिजलेले होते. या अशा अवस्थेत व परिस्थितीमध्ये आम्ही आमची सकारात्मकता जागृत ठेवली होती व स्वतःवरच हसत आम्ही पुढे निघालो. थोडं पुढे गेल्यानंतर एक एसटी वळताना दिसली. थोडा हायसं वाटलं. आता परतीचा निर्णय पक्का झाला असल्यामुळे आमच्यावरचा बराच तणाव कमी झाला होता. आम्हाला आता मजा वाटू लागली होती. एका थरारक ,रोमांचकारी सहलीचा आस्वाद घेतोय असं वाटू लागलं. डॉक्टर चप्पल असल्यामुळे भिजल्यामुळे त्या खूप जड झाल्या होत्या. कारण त्यात पाणी भरले होते. तसेच एकदाचे पाय ओढत ओढत कर्जत स्टँड वर पोहोचलो. हुश्श!!!! आले एकदाचे स्टॅन्ड असे वाटले. पण अजून परीक्षा बाकी होती कारण जानवर चौकशी केली असता पनवेल ला गाड्या आहेत पण पुण्याकडे जायला गाड्या जास्त नाहीत. खोपोली पर्यंत जावं लागेल. आत्ताच एक गाडी गेली दुसरी गाडी भरली तर सोडणार असे सांगितले गेले. आता स्टँडवर बसण्याशिवाय पर्याय नव्हता. बसावं म्हटलं तर सगळीकडेच ओल होती, कारण पाऊस कसाही कोसळत होता. माणसाबरोबर कुत्र्यांनी ही तिथेच आसरा घेतला होता. त्यामुळे ते चावतील या भीतीने एका बाजूला कोपऱ्यात एकच जागा मिळाली तिथे बसलो. मुंबईकडे जाणाऱ्या दोन तीन बसेस गेल्या पण खोपोली ला जाणारी बस तरी भरेना. अर्धा तास बसून होतो. सकाळपासून उपाशीच आहोत याची जाणीव अजिबात झाली नव्हती ती आता शांत बसल्यानंतर झाली. दुपारचा एक वाजला होता. जवळपास कुठेही हॉटेल नव्हते. आमच्यात झालेल्या फजिती वर हसत होतो. एवढ्या जवळ येऊन त्यांना आईला, माहेरच्या माणसांना भेटता आले नाही याचे दुःख होते, तर मला संमेलनाला हजर राहता येणार नाही म्हणून दुःख वाटत होते. पण तिथली ती भयानक परिस्थिती पाहता आम्ही घेतलेला निर्णय हा योग्य होता असे वाटून थोडे हायसे वाटले.
जवळ-जवळ अर्धा पाऊण तासाने एक बस भरली. बस मध्ये सर्वत्र ओलच होती. सर्व कपडे ओले झाल्यामुळे त्या ओलीचे आता मला काहीच वाटत नव्हते. आमचा खोपोलीकडे जाण्याचा प्रवास सुरू झाला. सतत कोसळणाऱ्या पावसामुळे बस चालकाला ही बस चालवणे अवघड जात होते. रस्त्यावर सर्वत्र पाणीच पाणी झाले होते. पावसाचे कोसळणे चालूच होते. तासा-दीड तासांमध्ये खोपोली आले. स्टॅंडवर न जाता बस अलीकडेच थांबली. इथेच उतरा असे सांगण्यात आले. खाली उतरलो, स्टँडची चौकशी केली व चालू लागलो. पाच मिनिटाच्या अंतरावर स्टँड होते. पावसाला झेलत व बॅगा सांभाळत स्टँड वर पोहोचलो. तिथेही तीच अवस्था.... सगळीकडे ओलच ओल. पुण्याला जाणाऱ्या गाडीची चौकशी केली असता एक तास थांबावे लागेल असे सांगण्यात आले. पावसाचा जोर थोडा कमी आलेला होता. पोटात भुकेची जाणीव होऊ लागली. मग आम्ही दोघी स्टँडच्या समोरच असलेल्या एका हॉटेलमध्ये गेलो. व तिथे इडली वडा खाल्ला. थोडे बरे वाटायला लागले. तिथून परत येऊन परत स्टॅंडवर बसलो. पोटातही अन्न गेले होते व आता आमचा परतीचा प्रवास सुरू झालेला होता त्यामुळे आम्ही निवांत होतो.तासाभराने आलेली प्रत्येक गाडी कोणती आहे हे पाहण्यासाठी धावपळ सुरु झाली कारण स्टँडचा आवार मोठा असल्यामुळे, व बसायची जागा थोडी लांब असल्यामुळे, बसेस आडव्या लागत असल्यामुळे गावाच्या नावाची पाटी दिसत नव्हती. पोतदार मॅडम अंगाणे हलक्या असल्यामुळे त्या पळत जाऊन गाडी बघायच्या व मी सामान सांभाळत स्टॅन्डवर बसलेली असायची. एकदाची पुण्याला जाणारी बस आली. मॅडम नि तिथूनच खूण केली. मी गडबडीने दोघींच्या बॅगा घेऊन बाहेर पडू लागले ते दृश्य पाहण्यासारखे होते. तेवढ्यात मॅडमही आल्या व त्यांनी आपल्या बॅगा घेतल्या, व आम्ही दोघी बस कडे निघालो. बसच्या बाहेर खूप गर्दी होती. आम्हाला तर वाटायला लागले आज जायला तरी मिळते कि नाही कोणास ठाऊक.अखेरीस अनेक कसरती करत आम्ही बस मध्ये जाण्यामध्ये यशस्वी झालो. मनाला खूप आनंद झाला, पण तो थोडाकाळच टिकला. कारण बस मध्ये इतकी गर्दी होती की बसायला तर सोडाच दोन्ही पायावर उभे राहता येते की नाही असे वाटू लागले. दुसरी बस कधी आहे हे माहिती नव्हते. त्यामुळे आहे हे स्वीकारून प्रवास करायचा ठरला. बस सुरू झाली. त्या गर्दी मध्ये बॅगा सावरत उभे होतो. तास दीड तास तो प्रवास चालू होता. कधी एका पायावर कधी दुसऱ्या पायावर स्वतःचा भार देत, उभे होतो. चपला मध्ये पाणी गेल्यामुळे जसा भार त्यावर पडेल तसे त्यातले पाणी इकडेतिकडे जाणवत होते. अर्धा तास उभारल्यानंतर पायाने बंड पुकारायला सुरू केले. हळूहळू पाय दुखू लागले. गुडघ्यामध्ये कळा येऊ लागल्या. पण हे सर्व सहनच करावे लागणार होते. जागा मिळते का हे दीनवाणी पणे इकडे तिकडे पहात होतो,पण आमची दया कुणालाही आली नाही. जवळ जवळ दीड तास हा त्रास सहन करत आम्ही उभे होतो. एकदाचे लोणावळा स्टॅन्ड आले. तिथे बरीच गर्दी कमी झाली. मग आम्हाला बसायला जागा मिळाली. स्वर्गसुख मिळाल्याचा आनंद झाला. एखादी गोष्ट जेव्हा आपल्याला सहजासहजी मिळत नाही व जेव्हा ती मिळते तेंव्हा त्या गोष्टीचा आनंद खूपच मोठा असतो, अवर्णनीय असतो, त्याची अनुभूती आली. तिथे थोडा वेळ बस थांबणार होती. मी खाली उतरले लोणावळा चिक्की, शेंगदाण्याच्या दोन पुड्या घेऊन परत आले तर बस लवकर लक्षातच येईना. अरे बापरे!!! पोटात एकदम भीतीचा गोळा आला. मग परत एक बस मध्ये पहात मी जाऊ लागले. चार-पाच बस सोडल्यानंतर आमच्या बसमधील ओळखीचे चेहरे दिसले मग बरे वाटले. एखाद्या गर्दीत आईचा हात सुटून बाजूला गेलेल्या लहान मुलांची जी मानसिक अवस्था होते तशीच माझी झाली होती. बस मध्ये जाऊन बसले. चिक्की ची पाकिटे गावाकडे नेता येतील म्हणून बॅगेत ठेवले. शेंगदाण्याची एक पुडी मॅडमला दिली व मी एक घेतली व खायला सुरुवात केली. बस पुन्हा सुरु झाली. शेजारी एक खेडवळ आपल्या लहान नातीला घेऊन बसला होता. तिलाही थोडे शेंगदाणे दिले. आपल्या आजोबांच्या कडे पहात तिने ते घेतले. तिच्या चेहऱ्यावर हसू आले. पाहून बरे वाटले. संध्याकाळ होत होती. पोद्दार मॅडमांचे खूप नातेवाईक पुण्यात होते. सर्वांचे फोन झाले. प्रत्येक जण आम्हाला त्यांच्या घरी बोलवत होता. शेवटी त्यांच्या मामाच्या घरी जायचे ठरले. पाऊस आता बऱ्यापैकी कमी झालेला होता.बसने पुण्यात प्रवेश केला. संध्याकाळचे सहा वाजले होते. बस मधून खाली उतरलो. रिक्षा केली व तडक त्यांच्या मामांचे घर गाठले. मामांनी हसतच आमचे स्वागत केले. मामी शेजारी गेलेल्या होत्या त्यांना फोन करुन मामांनी बोलवून घेतले. थोड्यावेळाने मामी आल्या. त्यांनी आमचे हसत स्वागत केले. आमची विचारपूस केली. आम्ही सुखरूप आलो याचाच त्यांना खूप आनंद होता. मामांना बघून मला माझ्या वडिलांची आठवण झाली कारण तेही तसेच शांत संयमी हसऱ्या चेहऱ्याचे वाटले. मामी गरम-गरम चहा व पोहे दिले. आता आम्ही निवांत होतो. दोघींनीही आपापल्या घरच्या लोकांना फोन करून आम्ही पुण्यामध्ये सुरक्षित पोहोचलो आहोत काळजी नसावी असा निरोप पोहोचवला. एका बेडरूममध्ये आम्हाला जागा देण्यात आली. मग आम्ही आमच्या बॅगा उघडल्या. पाहतो तर काय बॅगेच्या खालील कपडे सगळे भिजलेले होते. ते सर्व बाजूला काढले व वाळत टाकले. थोड्यावेळाने मॅडम यांचे मामेभाऊ व मामेबहीण आले. मॅडमांची मुलगीही पुण्यामध्ये नोकरीला होती तीही भेटायला आली.त्यांच्याशी गप्पा मारत बसलो. टीव्ही वर बातम्या पहिल्या. रात्री मामींनी छान जेवण केले. थोडा वेळ गप्पा मारत बसलो व निद्राधीन झालो. सकाळी लवकर उठून जायचे होते पण मा मामींनी खूप आग्रह करून आम्हाला जेवण घालून मगच सोडलं. दुधाची तहान ताकावर भागवणे असे म्हणतात त्याची प्रचिती आली. कारण मॅडम आईला भेटायला निघाल्या होत्या आईला न भेटता मामाला तरी भेटायला मिळाले समाधान वेगळेच होते. तिथून आम्ही मॅडमच्या बहिणीच्या घरी गेलो. त्यांनी आमचे स्वागत छान पैकी केले. त्यांचा पाहुणचार घेऊन तिथून आम्ही रिक्षाने स्वारगेटला आलो. तिथे शिवशाही बस उभीच होती. मॅडमांची मुलगी आम्हाला सोडायला आली होती. तिने तिकीट काढून दिले. आम्ही बस मध्ये बसलो व तिला जड अंत:करणाने निरोप दिला. व आमचा परतीचा प्रवास सुरु झाला. त्या दिवशीच काव्यसंमेलन होते. व्हाट्सअप च्या माध्यमातून मी ते संमेलन ऑनलाइन पहात होते. कविता ऐकत होते. नुकताच पाऊस झाल्यामुळे हवेत सर्वत्र गारवा होता. झाडे प्रफुल्लित दिसत होती. हिरवीगार पाने सळसळत होती. फांद्या आनंदाने डोलत होत्या. घाटामध्ये डोंगरावरून पाण्याचे ओहोळ, छोटे मोठे धबधबे डोळ्याला सुखावत होते.मनही आनंदाने गात होतं. त्या निसर्गाचे एक-दोन फोटो काढले, तेवढेच काय ते त्या प्रवासातील फोटो. रात्री साडेआठ वाजता जयसिंगपूर स्टॅन्ड वर आलो. खाली उतरून स्टॅन्ड वर आल्यानंतर जणूकाही एक महान कार्य करून आल्याची अनुभूती आली. असा हा आमचा परतीचा प्रवास ,मुंबई चा पाऊस व रेल्वेचा प्रवास आमच्या कायमच लक्षात राहील.
लेखिका
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर